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गोपाल राजू की चर्चित पुस्तक, “स्वयं चुनिए अपना भाग्यशाली रत्न” का सार-संक्षेप
Comprehensive and intellectual knowledge of Gemstones
रत्नों की बौद्धिक एवम तार्किक जानकारी
विश्वस्तर पर देखा गया है कि रत्न अथवा उनके उपरत्नों का उपयोग किसी न किसी रूप से व्यापक स्तर पर अन्ततकाल से चला आ रहा है। जितना अधिक इसका चलन आज समाज में हुआ है उससे कहीं अधिक रत्न विषयक विद्या का दोहन और व्यवसाय हो रहा है। रत्नों का उपयोग करनेवाले कितने हैं जो लाभ उठा रहे हैं। यहाँ एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न लगा है परन्तु यह सत्य है कि रत्न व्यवसाय करने वालों ने अच्छा खासा धन अर्जित किया है और कर रहे हैं। अबोध और निरीह जनता के लिए रुड़की के अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक तथा प्रसिद्ध ज्योतिष और रत्न विशेषज्ञ गोपाल राजू से लिये गए एक साक्षात्कार को उनके ही शब्दों में प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि हर व्यक्ति का रत्न विषयक भ्रम दूर हो सके और उनको रत्नों सम्बन्धित विशुद्ध, तार्किक और वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त हो सके ।
प्र0 रत्न क्या हैं ?
उ0 रत्न खनिज हैं। यह वनस्पति तथा जैविक साधनों से भी उपलब्ध हो सकते हैं। यह सुन्दर तथा आकर्षण का गुण रखते हैं।
प्र0 इनका उपयोग कहाँ होता है ?
उ0 सुन्दरता के गुण के कारण यह अलंकरण में प्रयोग किये जाते हैं। कठोरता के गुण के कारण इनका मशीनी उपकरण में प्रयोग होता है। जीवन को प्रभावित करने के गुण के कारण एक बड़ा वर्ग इन्हें भाग्यशाली रत्नों के रूप में भी उपयोग करता है।
प्र0 जीवन को प्रभावित करना अर्थात्?
उ0 दुर्भाग्य दूर करके सौभाग्य देना।
प्र0 वह कैसे?
उ0 रंग सिद्धांत एवं ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से जीवात्मा में न्यून हो रहे रंग तथा ऊर्जा में ब्रह्माण्ड से यह शोषित करके शरीर में समाहित करना तद्नुसार रंग और ऊर्जा में सामन्जस्य बनाना।
प्र0 सरल भाषा में समझाएँ कि रत्न कार्य कैसे करते हैं?
उ0 रत्न शरीर में हुई किसी रंग विशेष की क्षति को पूर्ण करते हैं। इसे एक उदाहरण से समझें। माना आप अपने सामने एक लैम्प रखकर कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं। लैंप के उचित स्थान पर न होने के कारण उसका प्रकाश ठीक से पुस्तक पर नहीं पड़ेगा। फलस्वरूप आपको पढ़ने में कठिनाई आयेगी। पुस्तक तथा आप तो स्थिर अवस्था में हैं परन्तु लैम्प को सुविधानुसार प्रकाश पाने के लिए यदि खिसकाया जायेगा तो आपको पढ़ने में सुखद अनुभूति होगी। रत्न भी ठीक ऐसे ही प्रिज्म अथवा लैंस की तरह कार्य करते हैं। यह ब्रह्माण्डीय स्रोतों से वांछित रश्मियां एकत्र करके शरीर में प्रविष्ट करवाते हैं जिससे कि हमें सुखद अनुभूति होने लगती है।
प्र0 रत्न के पीछे रत्नों के औने, पौने, सवाए आदि भार का क्या औचित्य है ?
उ0 कोई नहीं, यह अपरिपक्व मानसिकता की देन है। भगवान के प्रसाद की तरह रत्नों में सवा, डेढ़, औने-पौने भार का चलन प्रचलित हो गया। व्यवसायी अबोध वर्ग को भी रत्न बताते समय डरा देते हैं- ”यदि सवा सात रत्ती अथवा अन्य किसी भार का रत्न नहीं होगा तो अनर्थ हो जायेगा।” रत्न विक्रेता भी वांछित भार का रत्न पैदा कर देते हैं। भले ही वास्तविक तौल में उसका भार कुछ और निकले।
प्र0 नकली रत्नों का चलन कब से है ?
उ0 सत्रहवीं सदी में नकली कांच पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसका आकार-प्रकार ठीक हीरे जैसा बना दिया गया था। इसका अर्थ है कि कम से कम चार सौ वर्ष पूर्व तो इनका चलन हो ही गया था। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से लेकर मध्य तक नकली रत्नों का देश-विदेश में व्यापार धड़ल्ले से होता था।
प्र0 बसरे के मोती नाम से जो बिकता है क्या वह ठीक है ?
उ0 नहीं। समुद्र में इतना क्रूड आयल गिरता है कि बसरा नामक क्षेत्र के समुद्र का सारा पानी दूषित हो गया। परिणामस्वरूप दसों वर्षों से वहाँ की प्राकृतिक मोती बनाने वाली सीप ही समाप्त हो गयी हैं। अब बसरे का मोती कहाँ से आ रहा है, स्वयं सोचिए ?
प्र0 रत्नों के विषय में जो पौराणिक किंवदन्तियाँ पढ़ने -सुनने में मिलती हैं, क्या उनमें सत्यता है ?
उ0 पुराण हैं, पौराणिक कथाएँ भी हैं। उनमें सार-सत भी है परन्तु अधिकांशतः किंवदन्तियाँ ही बना दी गयी हैं। उत्थान के लिए हमें वर्तमान परिपेक्ष्य में जीना है, पौराणिक युग में तथाकथित् अतिश्योक्ति वाली दन्तकथाओं और किंवदन्तियों में नहीं।
प्र0 रत्न विज्ञान के निदान वाले पहलू पर आपका अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है ?
उ0 रत्नविज्ञान से एक सीमा तक निदान अथवा लाभ सम्भव है। परन्तु उसका कोई एक नियम सब पर फिट बैठे, यह आवश्यक नहीं है। अलग-अलग स्थान के तीन ऐसे रोगी हैं जो बिल्कुल एक से मिलते-जुलते किसी गम्भीर रोग से पीड़ित हैं। एक योग्य डॉक्टर तीनों को बिल्कुल एक सी दवाई देता है। यहाँ यह आवश्यक नहीं है कि तीनों रोगी एक ही दवाई से रोगमुक्त हो जाएँ। एक ठीक हो जाता है, दूसरे पर उसी दवा का विपरीत प्रभाव हो जाता है तथा तीसरे पर कोई प्रभाव ही नहीं होता। योग्य डॉक्टर, स्थान, समय, मनोवृत्ति, रोगी आदि को देखकर निश्चय ही अलग-अलग दवा देगा। अनेक पहलू टटोल कर फिर निदान वाले क्षेत्र में जायेंगे तो वांछित फल की अधिक सम्भावना होगी।
प्र0 लाभ के लिए रत्न किससे लेना चाहिए सुनार से, रत्न विक्रेता से या फिर किसी योग्य रत्न गणना करने वाले बौद्धिक व्यक्ति से ?
उ0 योग्य रत्न विषेशज्ञ से अनुकूल रत्न चयन करवायें। सुनार अथवा रत्न विक्रेता रत्न गणना कदापि् नहीं कर सकता। रत्न विक्रेता से रत्न क्रय करें क्योंकि वहाँ से रत्न अपेक्षाकृत सस्ता मिलने की सम्भावना रहेगी।
प्र0 रत्नों की माला बनाते समय उनमें धागा पिरोने के लिए छेद कर दिये जाते हैं। क्या ऐसे रत्नों की अंगूठी भी बनवाई जा सकती है ?
उ0 नहीं। रत्न एक प्रकार से खण्डित हो गया और खण्डित रत्न अपेक्षाकृत अपनी ग्राह्य शक्ति खो देता है।
प्र0 रत्नों का चलन क्या वैदिक काल में भी था ?
उ0 ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में रत्न शब्द का प्रयोग मिलता है। परन्तु वस्तुतः यह रत्न बोधन प्रचलित रत्न न होकर वनस्पतियों की जातियाँ थीं। अथर्ववेद में मणियों का अवश्य वर्णन आता है। रामायण, बाईबिल, महाभारत आदि ग्रंथों में तो रत्नों का वर्णन खूब आता है। हाँ रत्नों के नाम वहाँ भिन्न अवश्य है।
प्र0 रत्नों की वानस्पतिक जाति से क्या तात्पर्य है ?
उ0 वानस्पतिक अर्थात् हाथाजोड़ी, कुशा ग्रंथि, श्वेतार्क, नागकेसर, रूद्राक्ष, एकाक्षी नारियल, तुलसी मंजरी आदि तथा कुछ वृक्ष विशेष के मूल।
प्र0 रत्नों की अंगूठी के स्थान पर यदि उनकी माला धारण की जाए तो क्या अधिक प्रभावशाली सिद्ध होगी।
उ0 मेरे दृष्टिकोण से नहीं। रत्न यदि अच्छी गुणवत्ता वाला है और व्यक्ति विशेष के लिए ठीक-ठाक गणना किया गया है तो उसका सूक्ष्मभार भी प्रभावशाली सिद्ध होगा। ऐसा नहीं है कि रत्न का बड़ा सा पत्थर गले में बाँध लिया जाए तो वह प्रभाव दिखायेगा। एक चम्मच घी से जो आपूर्ति होगी वह एक गिलास घी पीकर नहीं। एक गिलास घी पीने से पता नहीं क्या होगा? स्वयं मनन करें ?
प्र0 कुछ विद्वान उन ग्रहों के रत्न चुनते हैं जो जन्मपत्री में बलहीन हों ?
उ0 हाँ कुछ स्कूल ऐसे हैं जो नीच के ग्रहों के रत्न धारण करवाते हैं। यह भी उचित है परन्तु यह चयन उस स्थिति में अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है जहाँ रत्न रोगनिदान के लिए प्रयोग किए जा रहे हों।
प्र0 रत्नों को प्रयोग करने से पहले उन्हें सिराहने रखकर सोने जैसी आदि बातें प्रचलन में हैं, यह कहाँ तक सत्य हैं ?
उ0 उपयुक्त चुना हुआ रत्न नियमानुसार जब शरीर के सम्पर्क में आयेगा तब ही प्रभावी सिद्ध होगा। इस प्रकार रत्न यदि प्रभाव दिखाने लगता तो सबसे पहले तो वह रत्न विक्रेता को, जिसके बैग में रत्न भरे होते हैं, फल देता। हाँ कुछ प्रभावशाली, महत्वपूर्ण तथा दुर्लभ रत्न ऐसे भी हो सकते हैं जिनका प्रभाव घर में प्रवेश के बाद से ही हो सकता है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। परन्तु ऐसे रत्न सर्वसाधारण की पहुँच से बहुत दूर हैं, इसलिए उन्हें भूल जाइए।
प्र0 क्या मूल्यवान रत्नों का ही प्रभाव मानव शरीर पर पड़ता है ?
उ0 नहीं ऐसा नहीं है। यदि रत्न चयन ठीक हुआ है तो साधारण मूल्य का उपरत्न अथवा उससे सम्बन्धित वनस्पति, रंगादि भी प्रभाव दिखायेंगे। प्रारब्ध तो प्रधान है ही, यह कभी न भूलें।
प्र0 एक समयावधि के बाद क्या रत्न प्रभावहीन हो जाते हैं ?
उ0 कुछ पुस्तकों में निम्न प्रकार से वर्णन मिलता है कि माणिक्य 4 वर्ष, मोती 2 वर्ष, 1 मास, 27 दिन, मूंगा 3 वर्ष, 3 दिन, पुखराज 4 वर्ष, 4 माह, 10 दिन तक प्रभावी रहते हैं आदि। यह सिद्धान्त भी रत्नों के भार की तरह आधारहीन है।
रत्न का प्रभाव निर्भर करेगा उसकी गुणवत्ता पर तथा ग्रह-नक्षत्रों की गोचरवश विभिन्न स्थितियों पर।
प्र0 क्या चुम्बक (डंहदमज) भी रत्नों की तरह प्रभावी सिद्ध होता है ?
उ0 हाँ, इसका प्रयोग रक्तचाप को सन्तुलन में लाने के लिए व्यापक स्तर पर किया जाता है।
प्र0 प्राण-प्रतिष्ठा अथवा रत्न को किसी क्रम-उपक्रम से चैतन्य कर देना विज्ञान सम्मत है ?
उ0 हाँ। रत्न को चैतन्य करके उसके मूल आभामण्डल में जो परिवर्तन होते हैं। वह अब पी.आई. पी पद्धति से स्पष्ट रूप से देखे भी जा सकते हैं।
प्र0 आज हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति रत्न, धातुओं का कड़ा, छल्ला आदि पहने दिखाई दे जाता है, इसका क्या अर्थ निकालें ?
उ0 इसका यही अर्थ निकालें कि इस विद्या का कुछ न कुछ अस्तित्व तो अवश्य है। परन्तु व्यक्ति क्या पहन रहे हैं ? क्यों पहन रहे हैं ? यहाँ भेड़ चाल तथा अज्ञानता अधिक है। आप स्वयं मनन करें कि मदारी की तरह दसों उँगलियों में रत्न धारण करना, गंडे-ताबीज़, त्रिपुण्ड-माला आदि से बाह्य आडम्बर रचा लेना क्या यह सब वैज्ञानिक, शास्त्रोक्त अथवा बौद्धिक मानसिकता का प्रतीक है ?
प्र0 रत्नों की कुल संख्या 84 मानी गयी है। यह संख्या रत्न जगत में अशुभ क्यों मानी गयी है ?
उ0 यह एक अंधविश्वास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह ठीक है कि रत्न जगत में 84 रत्ती, कैरेट अथवा एक पैकेट में 84 रत्न रखना आदि प्रायः चलन में नहीं है। इसे ठीक ऐसा ही समझें जैसा कि अंक विज्ञान में 13 अंक को अशुभ माना जाता है।
प्र0 रत्न के लिए धातु तथा उँगली का भी वर्णन करें।
उ0 यदि धातु तथा उस उँगली की समुचित व्यवस्था कर ली जाए जिसमें कि रत्न धारण करना है तो परिणाम-त्वरित होगा।
किस ग्रह का रत्न कौन सी धातु कौन सी उँगली
1 सूर्य स्वर्ण, तांबा अनामिका
2 चन्द्र चाँदी कनिष्ठिका
3 मंगल स्वर्ण, तांबा अनामिका
4 बुध पारा, स्वर्ण, काँसा कनिष्ठिका
5 गुरु स्वर्ण अथवा चाँदी तर्जनी
6 शुक्र त्रिधातु कनिष्ठिका
7 शनि रांग, त्रिधातु, लोहा मध्यमा
सीसा अथवा चाँदी
नोटः राहु तथा केतु के लिए क्रमशः सूर्य तथा मंगल के दिन निश्चित हैं। यह अनामिका तथा कनिष्ठिका में त्रिधातु में धारण करें। त्रिधातु हैं – सोना , चाँदी और लोहा। अष्ट धातुएँ हैं – सोना, चाँदी, तांबा, लोहा, जस्ता, रांगा, सीसा तथा पारा।
प्र0 रत्न निश्चित उँगलियों में ही क्यों पहनें ?
उ0 क्रिलियोंन फोटोग्राफी से अब यह तथ्य उजागर हो गया है कि ग्रहों के समान रंग शरीर से प्रवाहित होने वाले प्रभामण्डल अर्थात् आभामण्डल के भी होते हैं। उँगलियों के विश्लेषणात्मक गहन अध्ययन से पता चला है कि तर्जनी उँगली के अग्रभाग से नीलवर्ण प्रभा निरन्तर प्रवाहि हो रही है। इसी प्रकार मध्यमा से बैंगनी, अनामिका से रक्तवर्ण, कनिष्ठिका से हरितवर्ण प्रभा निरन्तर प्रवाहित हो रही है। शरीर में किसी भी वर्ण की न्यूनता अथवा अधिकता से ग्रह-नक्षत्रों द्वारा प्रवाहित प्राकृतिक विभिन्न वणरें में असन्तुलन स्थापित होने लगता है। तदनुसार शरीर नाना प्रकार से कष्ट भोगने लगता है। रंगों की क्षतिपूर्ति का एक विकल्प रत्न भी हैं। उँगलियों से प्रवाहित वर्णानुसार उन रंगों के ग्राह्य गुण सम्पन्न रत्नों को इसीलिए धारण करवाने का विज्ञान सम्मत प्रचलन है, तद्नुसार अधिकतम रंग शरीर द्वारा शोषित हों और उनका आकाशमण्डलीय ग्रह-नक्षत्रों के वर्णानुसार सन्तुलन अथवा सामंजस्य बना रह सके।
प्र0 यूनानी चिकित्सा पद्धति में रत्नों का क्या महत्व है?
उ0 भारतीय चिकित्सा पद्धति में रत्नों की भस्म बनाकर रोग के निदान का कार्य किया जाता है। परन्तु यूनानी पद्धति में उन्हें पीसकर उनका चूर्ण तथा बुरादा बनाकर रोगोपचार में प्रयोग किया जाता है। वह मानते हैं कि भस्म बनाने से रत्न के मूलभूत गुण जलकर नष्ट हो जाते हैं।
प्र0 क्या रत्नों में भी वर्ण भेद माना गया है ?
उ0 हाँ सामाजिक व्यवस्था की तरह रत्न व्यवस्था के भी चार भाग माने गये हैं। उन्हीं के आधार पर रत्नों का वर्गीकरण हुआ है।
वर्ण रत्न
ब्राह्मण पुखराज, हीरा
क्षत्रिय मूंगा, माणिक्य
वैश्य मोती
शूद्र पन्ना, नीलम, गोमेंद तथा लहसुनिया
प्र0 रत्न चौरासी बताए गए हैं। क्या सब उपलब्ध हो जाते हैं ? क्या सब प्रयोग भी किये जाते हैं ?
ड0 नहीं सब रत्न उपलब्ध नहीं हैं। सब ज्योतिषीय दृष्टिकोण से प्रयोग भी नहीं किये जाते। उनका अन्यत्र उपयोग होता है। जैसे मूसा उपरत्न से खरल बनता है। सेलखड़ी से पाउडर आदि बनाया जाता है। जहरमोहरा साँप का विष उतारने के काम आता है। सुरमा से आँखों का अंजन बनाया जाता है। कुछ उपरत्नों से आयुर्वेद में भस्म, पिष्टी आदि बनाकर रोगोपचार में प्रयोग किए जाते हैं।
प्र0 मणियाँ क्या हैं ?
उ0 मणियाँ वस्तुतः रत्न ही हैं। संस्कृत में दुर्लभ, मूल्यवान आदि रत्नों को मणिसंज्ञक बना दिया गया है। यह रत्नों के ही नाम हैं। जैसे सूर्यकांत मणि माणिक्य का ही नाम है। तमोमणि गोमेद, पुष्प अर्थात् पीतमणि पुखराज आदि के नाम हैं।
प्र0 रत्न कितने प्रकार के होते हैं ?
उ0 यह विवादास्पद प्रश्न है। अब तक के उपलब्ध आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि धरती को रत्नगर्भा कहा गया है। 2500 से भी अधिक अकार्बनिक रसायन उपलब्ध हैं। परन्तु इतनी बड़ी संख्या में से मात्र 16 ने ही रत्नों की श्रेणी पायी है। तथाकथित् 84 रत्न इनमें ही आते हैं। इन 84 रत्नों में से भी कुछ दुर्लभ अथवा काल्पनिक हैं। पता नहीं वह कभी अस्तित्व में आए भी अथवा नहीं, जैसे पारसमणि।
प्र0 अनेक रत्नों को अक़ीक़ का नाम दे दिया जाता है, क्या यह उचित है ?
उ0 अक़ीक़ वर्ग में बहुत से रत्न आते हैं, यह ठीक है परन्तु ऐसा भी नहीं है कि जो रत्न हमारी समझ के बाहर हैं वह अक़ीक़ वर्ग के ही हैं। क्रिस्टल एक सामान्य सा नाम है। क्वार्ट्ज़ एक अन्य ऐसा ही नाम है इनके अन्तर्गत अनेक रत्न आते हैं जैसे सुलेमानी, कैल्सीडोनी, कार्नीलियन, रॉक किस्ट्रल. गुलाबी क्वार्ट्ज, ऐमिथिस्टीय क्वार्ट्ज़, कैट्स आई क्वार्ट्ज़, जैस्पर, ऐवेन्टुराइन क्वार्ट्ज़ आदि। सामान्य भाषा में यह अक़ीक़ वर्ग के ही हैं, इसलिए विभिन्न नामों से भ्रम होना स्वाभाविक है।
प्र0 आकृति के अनुसार रत्न कितने प्रकार के होते हैं?
उ0 प्रकृति के अनुसार इनकी कुल छः श्रेणियाँ हैं –
1. विषम लम्ब अक्षवाले – इनमें चौड़ाई से लम्बाई अधिक होती है। जैसे पैरिडौट, पल्ली आदि।
2. एक नत अक्षवाले – मून स्टोन, मणियाँ आदि इस श्रेणी में आते हैं।
3. तीन नत अक्षवाले – अनेक प्रकार के मणियाँ इस श्रेणी में आती हैं।
4. चतुष्कोण आकृति वाले – गोमेद आदि इस श्रेणी के रत्न हैं।
5. षट्कोण आकृति वाले -कोरण्डम, नीलम आदि इस श्रेणी में आते हैं।
6. घनाकार आकृति वाले – इन रत्नों में लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई तथा मोटाई सब समान होती हैं।
प्र0 आम उपलब्ध साहित्य में रत्नों की शुद्धता की परख वाली बाते जो प्रकाशित होती रहती है, उनमें कहाँ तक सत्यता है ?
उ0 रत्नों की परख उनकी क्रिस्टलीय तथा रासायनिक संरचना और भौतिक गुणों के आधार पर की जाती हैं। वस्तुतः यही सत्य आँकने की कसौटी है। किसी भी खनिज-रत्न की विश्वसनीय परख इसके अतिरिक्त निर्भर करती है उसके परमाणविक संघटन पर। इसके लिए आवश्यकता होती है उपकरण से सुसज्जित प्रयोगशाला की। परन्तु ऐसे उपकरण सर्वसाधारण को सुलभ नहीं हैं, इसलिए रत्न की सत्यता पर भी प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है। मोटे तौर पर भौतिक परख के रूप में निम्न बातें भी सत्यता की परख में उपयोगी सिद्ध होती हैं-
प्रकाश – आधारित गुण तथा रंग, द्युति, स्फुरदीप्ति, प्रतिदीप्ति आदि स्वाद, गंध, स्पर्श-आधारित गुण। सम्युचयन – आधारित गुण, आकृति, बहुरूपता, कठोरता, विदलन आदि। आपेक्षित घनत्व चुम्बकत्व तथा अन्य गुण।
इसलिए बेसिर-पैर की तथाकथित् बातों जैसे कि माणिक्य को दूध में डालने से वह उबलने लगता है, मूंगा जलाने से जलता नहीं, लहसुनिया को मुठ्ठी में कुछ समय के लिए बन्द रखा जाए तो वह अग्नि स्वरूप ज्वलंत होने लगता है, रत्न के ठीक बराबर चावल साथ बांधकर सोने से यदि वह सच्चा है तो चावल का भार घटा देता है आदि को अपने बुद्धि विवेक से ही अपनाएँ।
प्र0 क्या युरेनस तथा नेप्च्यून के लिए भी कोई रत्न हैं?
उ0 इसके लिए क्रमशः गोमेद तथा लहसुनिया प्रयोग करके देखें।
प्र0 रत्नों की विभिन्न आकृतियों का भी वर्णन करें जो सामान्यतः प्रचलित है?
उ0 सामान्यतः रत्नों की कटिंग के समय उनके वर्ग के अनुसार उनको आकृति दी जाती है तथा ध्यान रखा जाता है कि उसमें अनुरूपता(ैलउउमजतल) रहे। वस्तुतः सिद्धान्त यह है कि रत्न का शिखर (।चमग) ऐसा हो कि उसके बाह्य सतह से किरणें यहाँ से ठीक-ठीक फोकस हो सकें। रत्न इसीलिए अंगूठी आदि में इस प्रकार जड़वाए जाते हैं कि उनकी निचली सतह शरीर को स्पर्श करे और शिखर के माध्यम से किरणें शरीर में समाविष्ट हो सकें। रत्नों के निम्न प्रकार आकार अधिकांशतः प्रचलन में है।
रत्न आकार
1. मूंगा त्रिकोण
2. मोती गोल
3. पन्ना, पुखराज, नीलम, षट्कोण,
माणिक्य अंडाकार
4. हीरा षट्कोण
5. अक़ीक़ अण्डाकार
भारत तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ प्रसिद्ध आकृतियाँ निम्न हैं –
कैबीकोन कटिंग, पटल कटिंग, स्टेप कटिंग, ज्वलन्त कटिंग, जाल कटिंग, गुलाबी कटिंग तथा मिश्रित कटिंग जैसे- पतंग, कुंजी पत्थर, सम आयत, सिरकटे, त्रिकोण, अर्धचन्द्र तथा त्रिकोण, चतुर्भुज, पंचभुज आदि।
प्र0 कुछ विश्व प्रसिद्ध हीरों के नाम बताएं ?
उ0 प्राचीन तथा जगप्रसिद्ध कुछ हीरे हैं- जहाँगीर शाह हीरा, निज़ाम हीरा, दरिया-ए-नूर, ध्रुव हीरा, नासिक हीरा, कुनीनन हीरा, ग्रेट मुगल हीरा, ओरलेक हीरा, पिट का रीजेंट हीरा, कोह-ए-नूर, होप, स्टार आफ इण्डिया तथा जोंकर आदि।
प्र0 क्या हीरे के ज़िरकन के अतिरिक्त अन्य उपरत्न भी हैं ?
उ0 हीरे के कुछ अन्य उपरत्न हैं – सिम्मा हीरा, कंसला हीरा, कुरंगी हीरा, तंकू हीरा तथा दत्तला हीरा आदि।
प्र0 कहते हैं कि हीरा चाटने से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है ?
उ0 नहीं, यह बात ठीक नहीं है। हाँ, यदि हीरे को निगल लिया जाए और समय रहते उपचार न करवाया जाए तो सम्भावना रहती है कि अपनी कठोरता के कारण वह आँतों को काट दे और व्यक्ति की मृत्यु हो जाए।
प्र0 क्या रत्नों में रंग कृत्रिम रूप से भी भरे जाते हैं?
उ0 हाँ, ताप द्वारा अथवा कुछ रासायनिक घोल विशेष द्वारा रत्नों को कृत्रिम रूप से भी रंगकर अधिक आकर्षक बनाया जाता है जिससे कि अलंकरण के रूप में उनकी आभा और निखर जाती है। परन्तु इस प्रकार से रंगे गए रत्न की आभा प्राकृतिक रूप से मिलने वाले रत्नों की तरह स्थाई नहीं होती है।
प्र0 ऐसा क्या है जिसने आपको रत्न विज्ञान की ओर आकर्षित किया अथवा कहें कि आपको इतना सब कुछ करने की प्रेरणा कहाँ से मिली ?
उ0 रोटरी क्लब, बस्तर में रत्न विषय पर मेरा भाषण चल रहा था, वहाँ किसी ने मेरा मनपंसद यह प्रश्न पूछा था।
मुझे सर्वाधिक प्रेरित किया आचार्य रजनीश जी ने। उन्होंने ” ज्योतिष अद्वैत का विज्ञान” में लिखा है कि समस्त ब्रह्माण्ड एक लयबद्धता में है। धरती के प्रत्येक कण-कण से अनवरत विकिरण होता रहता है। प्राकृतिक रूप से सृष्टि स्वयं ही अपना सन्तुलन बनाने में लगी है। इसमें बना असन्तुलन ही शरीर, समाज, देश, वनस्पति आदि में अराजकता उत्पन्न करने लगता है। ग्रह-नक्षत्र तथा मानव शरीर में भी एक सन्तुलन बना हुआ है। असन्तुलन की स्थिति में रत्न-उपरत्नादि भी एक अच्छा प्रभावशाली उपक्रम सिद्ध होता है। अमरीका के डॉ. ऑस्कर ने दो तरंगों के मध्य सन्तुलन का एक अच्छा प्रयास किया है। विभिन्न ग्रह तथा उनसे सम्बन्धित रत्नों की वेवलैंथ की उन्होंने गणना की । उन्होंने बताया कि विपरीत ग्रहों की वेवलैंथ सदैव ऋणात्मक होती है तथा रत्नों की धनात्मक। धन तथा ऋण में जब परस्पर सम्बन्ध बनता है तो उनका दुष्प्रभाव तटस्थ हो जाता है। निम्न सारणी में ग्रह तथा रत्नों की वेवलैंथ लिख रहा हूँ इससे शोध के विद्यार्थियों को आगे बढ़ने में सहायता मिलेगी।
ग्रह वेव लैंथ रत्न वेव लैंथ
(ऋणात्मक) (धनात्मक)
सूर्य 65,000 माणिक्य 70,000
चन्द्र 65,000 मोती 70,000
मंगल 85,000 मूंगा 65,000
बुध 85,000 पन्ना 70,000
गुरू 1,30,000 पुखराज 50,000
शुक्र 1,30,000 हीरा 80,000
शनि 65,000 नीलम 70,000
राहु 35,000 गोमेद 70,000
केतु 35,00 लहसुनिया 70,000
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